छायावाद—हिंदी काव्य का स्वर्ण युग: गहराई, सौंदर्य और रहस्य के विस्तृत परिप्रेक्ष्य में

भूमिका


“छायावाद हिंदी कविता के विकास का वह संवेदनशील युग है, जिसने भाषा, शिल्प, स्वरूप, विषय और अनुभूतियों—हर स्तर पर हिंदी साहित्य को नवीनता और गहराई दी।”
1918 से 1936 तक का यह युग, साहित्यिक दृष्टि से भारतीय नवजागरण, सांस्कृतिक जागरूकता और मानव मन की गहराई की खोज का विलक्षण दस्तावेज़ है। जैसा कि नामवर सिंह ने कहा, “छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है, जो मनुष्य की उदात्त चेतना से प्रेरित रही।”


छायावाद का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और नामकरण

छायावाद का उदय भारतीय समाज, राजनीति और संस्कृति के अनोखे संक्रमण काल में हुआ। “…प्रथम विश्व युद्ध और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की हलचलों ने संवेदनशील हिंदी कविता को नया प्रवाह दिया…”
‘छायावाद’ शब्द सर्वप्रथम साहित्यकार मुकुटधर पाण्डेय ने ‘शारदा’ पत्रिका (1920) में चार लेखों की माला के माध्यम से हिंदी विद्यार्थियों में प्रचलित किया। उनकी ‘कुररी के प्रति’ कविता छायावाद की प्रथम माननीय रचना मानी जाती है—
“यह केवल कविता का परिवर्तन नहीं, देश का आत्मस्वरूप समझने का प्रयास था, एक महान सांस्कृतिक आंदोलन था।” (हजारीप्रसाद द्विवेदी)


विचारधारा, सौंदर्य-बोध एवं प्रेरणा-स्रोत

छायावादी कविता की प्रेरणा स्रोत भारतीय वैदिक-उपनिषद काल की गहराई, भक्ति-सान्निध्य, रवींद्रनाथ ठाकुर की रहस्यपूर्ण गीतिता तथा पाश्चात्य रोमांटिसिज्म, बौद्ध और अद्वैत दर्शन माने जाते हैं।
“यह युग कल्पनाशीलता, आत्मगतता, रहस्य, प्रकृति और व्यक्तित्व के सयुंक्त प्रभाव का परिणाम था।” (महादेवी वर्मा)


छायावाद की केंद्रित विशेषताएँ

1. व्यक्तिवाद तथा आत्मानुभूति

“छायावाद में सभी कवियों ने अपने अनुभव को ‘मेरा अनुभव’ कहकर अभिव्यक्त किया है… वैयक्तिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व्यक्ति की मुक्ति से सम्बद्ध थी।” (रामचंद्र शुक्ल)
जयशंकर प्रसाद लिखते हैं— “काव्य के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा…बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी, तब हिंदी में उसे छायावाद कहा गया।”

2. रहस्यवाद—परोक्ष एवं दार्शनिकता

डॉ. दिनेश साहू के अनुसार, “छायावादी कविता में रहस्यात्मकता—अनुभूति का गूढ़ अन्वेषण, सूक्ष्मता से भाव-जगत की खोज—स्पष्ट है। यह प्रवृत्ति उद्गम के रहस्य की पहचान, सृष्टि की विराटता, प्रकृति के कण-कण में अदृश्य सत्ता की अनुभूति में अभिव्यक्त होती है।”
महादेवी वर्मा लिखती हैं: “छायावाद का मूल दर्शन सर्वात्मवाद को मानता है—विश्व के साथ कवि की एकात्मता।”

उदाहरण:
“बिखरी अलकें ज्यों तर्क-जाल।” (कामायनी)
“तप रे मधुर मधुर मन, विश्व वेदना में तप प्रतिपल।” (महादेवी)

3. प्रकृति-प्रेम और मानवीकरण

छायावादी कवि प्रकृति को केवल पृष्ठभूमि या वस्तु नहीं, अपितु जीवंत पात्र और सहभागी मानते हैं।
“बीती विभावरी जाग री, अंबर पनघट में डुबो रही तारा घट उषा नागरी।” (प्रसाद)
महादेवी वर्मा के अनुसार, “छायावाद की कविता हमारा प्रकृति के साथ रागात्मक संबंध स्थापित करती है।”

4. काव्य-भाषा, शिल्प और प्रतिमा

छायावाद ने हिंदी कविता में ‘खड़ी बोली’ को सशक्त स्थान दिया।
“…इसे साहित्यिक खड़ी बोली का स्वर्णयुग कहा जाता है… इसने हिंदी को नए शब्द, प्रतीक तथा प्रतिबिंब दिए।”[4]
अलंकार, प्रतीक और लाक्षणिकता:
“मूर्ति को अमूर्त और अमूर्त को मूर्त रूप में चित्रित करने के लिए छायावादी कवियों ने अभूतपूर्व प्रयोग किए।”


छायावाद के प्रतिनिधि कवि और उनकी रचनाएँ

कवि प्रमुख रचनाएँ अभिव्यक्ति एवं उद्धरण जयशंकर प्रसाद ‘कामायनी’, ‘झरना’, ‘लहर’, ‘आँसू’ “जहाँ जीवन का अमृत-धार/ वही अश्रु कानन में मेरा…” (झरना) सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ‘अनामिका’, ‘परिमल’, ‘राम की शक्ति पूजा’ “दिवसावसान का समय, मेघमय आसमान से उतर रही संध्या…” सुमित्रानंदन पंत ‘पल्लव’, ‘गुंजन’, ‘वीणा’ “बालिका मेरी मनोरम मित्र थी।” (पल्लव) महादेवी वर्मा ‘नीरजा’, ‘यामा’, ‘संध्या गीत’ “मैं नीर भरी दुख की बदली।”[4]


छायावाद की आलोचना

रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं, “छायावाद स्वच्छंदता अनुकरण और रहस्यवाद-विरोध के मध्य अपनी राह तलाशता है, किंतु इसी में उसकी सृजनशीलता भी है।”
छायावाद और उसके रहस्यवाद की आलोचना उसकी क्लिष्टता, अस्पष्टता और अतिवैयक्तिकता के लिए हुई—पर “छायावाद का वैशिष्ट्य हिंदी कविता को समाज, नैतिकता और परंपरा की जड़ता से निकालकर स्वतंत्रता, अनुभूति और सौंदर्य के क्षेत्र में ले जाना है।”
पंत का कथन द्रष्टव्य है: “छायावाद विश्वदृष्टि से अनुप्राणित था और यही इसकी आधुनिकता थी।”


छायावाद का साहित्यिक और सांस्कृतिक प्रभाव

  1. छायावाद ने आधुनिक हिंदी कविता के लिए आत्मबोध, नवचेतना, गहराई, सौंदर्य, प्रतीकात्मकता और भाषिक सशक्तता की नींव रखी।
  2. “छायावाद ने हिंदी कविता को सामाजिक और नैतिक उपदेशों की सीमा से बाहर निकालकर, उसमें वैयक्तिक अनुभूति और व्यक्तित्व का प्रवाह दिया।” (हजारीप्रसाद द्विवेदी)

निष्कर्ष

छायावाद हिंदी साहित्य का वह युग है, जहाँ आत्मा, सौंदर्य, रहस्य और प्रकृति की गूढ़तम परतें कविता का मुख्य आधार बनीं। “छायावाद हिंदी काव्य की संवेदनशीलता, कल्पना, गूढ़ता और मानव का सार्वभौमिक भाव-बोध है, जो साहित्य को स्वर्ण युग की ओर ले गया।” (नामवर सिंह)[4][3]
इस शोध पत्र में छायावाद का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विस्तार, साहित्यिक-शिल्प, प्रमुख कवियों की अतिविशिष्ट रचनाओं और विभिन्न विद्वानों के उद्धरणों सहित समग्र विवेचन प्रस्तुत किया गया है।

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